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दुर्घटनाओं पर राजनीति

संजीव शुक्ल ‘अतुल’
संजीव शुक्ल ‘अतुल’
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वोट की राजनीति क्या न करवाए । सत्ता में आने के लिए और फिर सत्ता में बने रहने के लिए आज न विकास की जरूरत है और न ही सिद्धांतों की। जरूरत है तो सिर्फ तुष्टीकरण की, भड़काऊ बयान देने की एवं वोटरों के ध्रुवीकरण की । ताकि चुनावी-समर में परिणामों को अपने पक्ष में किया जा सके । सुविधावादी राजनीति के माहिर ऐसे नेताओं की दृष्टि में हिन्दू, मुस्लिम या अन्य कोई धर्म, धर्म नहीं बल्कि वोटरों की जमात है। धार्मिक-अस्मिता के नाम पर की जाने वाली राजनीति का असली मकसद एक समुदाय-विशेष को गोलबंद करके उसे वोट बैंक के रूप में तबदील करना है। इस तरह की राजनीति सांप्रदायिक -प्रतियोगिता को बढ़ावा देते हुए एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का वातावरण पैदा करती है। और अविश्वास का यही वातावरण सांप्रदायिक दुर्घटनाओं की पृष्ठभूमि तैयार करता है। दादरी-कांड जैसी दुर्घटनाएँ इसी की उपज है । समाज का एक बड़ा तबका जो अशिक्षा से ग्रस्त है, नहीं जानता है कि समाज में सांप्रदायिक-उन्माद का जहर घोलने वाले ये नेता सिर्फ अपना उल्लू सीधा करते हैं । इनको समाज के दुख-दर्द से कोई मतलब नहीं ।
दादरी-कांड के बाद जिस तरह से जिम्मेदार नेताओं के गैर-जिम्मेदार बयान आए हैं ,उससे पता चलता है कि हमारा राजनीतिक-नेतृत्व मानवीय समवेदनाओं के प्रश्न पर भी मामले का राजनीतिकरण करने से नहीं चूकता। संगीत सोम, ओवैसी, आजम खान तथा लालू यादव के बयानों में न तो पीड़ित पक्ष की वेदना झलकती है और न ही सामाजिक-सद्भाव की चिंता । इन लोगों की बेलगाम जुबानें किस कदर समाज में जहर घोलतीं हैं इसकी इन्हें परवाह नहीं । इन्हें राष्ट्र की गरिमा का भी ख्याल नहीं । आजम खान का यह बयान कि वह दादरी-कांड यूनाइटेड-नेशंस में ले जाएंगे , यह दर्शाता है कि वह किस हद तक गिर सकते हैं । इसे मानसिक दीवालियापन ही कहा जाएगा कि जो व्यक्ति सरकार में एक प्रभावशाली हैसियत रखता हो और जिस पर कानून-व्यवस्था को बेहतर बनाए रखने की मुख्य ज़िम्मेदारी हो वह अपनी जवाबदेही से बचता हुआ सांप्रदायिक प्रलाप कर रहा है। अगर उनमें जरा भी नैतिकता हो तो उनको सबसे पहले मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए । इनका यह बयान अलगाववादी मानसिकता से प्रेरित है।
निश्चित रूप से दादरी जैसी घटनाएँ भारतीय समाज और भारतीय राजनीति के लिए कलंक हैं । इन्हें रोका जाना चाहिए तथा असामाजिक तत्वों से कठोरता से निपटा जाना चाहिए । गाय की रक्षा जरूर की जानी चाहिए लेकिन इंसान की भी रक्षा जरूरी है । असहिषणुता की इजाजत कोई धर्म नहीं देता और फिर हिन्दू धर्म तो अपनी उदारता के लिए विख्यात है । इंसानियत का खून करके न हम सच्चे हिन्दू हो सकते हैं और न सच्चे मुसलमान । इन दुर्घटनाओं में न हिन्दू मरता है न मुसलमान। मरता है तो किसी का बाप, किसी का लड़का, किसी की माँ, पुत्री या फिर बहन। इसमें हत्या होती है मानवीय भावनाओं की एवं मानवीय रिश्तों की ।
समाजिक-सद्भाव के लिए यह आवश्यक है कि एक-दूसरे के प्रतीकों,चिन्हों,ग्रन्थों और भाषा को सम्मान दिया जाय। ऐसा करके ही हम पंथनिरपेक्षता को मजबूत कर सकते हैं । हिन्दू-समाज में गाय को बहुत श्रद्धाभाव की दृष्टि से देखा जाता है इसलिए उसकी रक्षा की जानी चाहिए । गोमांस पर पूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए। साथ ही प्रतिक्रियावादियों और धार्मिक उन्मादियों के साथ कठोरता से निपटा जाना चाहिए फिर चाहे वह किसी भी संप्रदाय के हों । अगर हम एक पक्ष का तुष्टीकरण करते हैं तो दूसरा पक्ष खुद-ब-खुद प्रतिक्रियावादी बन जाता है । इसलिए पंथनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखने के लिए तुष्टीकरण की नीति को खत्म किया जाना चाहिए । तुष्टीकरण की नीति के अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं जिन्हें समझने की जरूरत है ताकि वोटों के ध्रुवीकरण की घिनौनी कोशिश को रोका जा सके । ।

—संजीव शुक्ल अतुल ……
http://sanjeevshuklaatul.blogspot.in/2015/10/blog-post.html

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