Menu
blogid : 12745 postid : 1110489

आरक्षण की राजनीति

संजीव शुक्ल ‘अतुल’
संजीव शुक्ल ‘अतुल’
  • 26 Posts
  • 6 Comments

इधर दो घटनाओं ने आरक्षण को फिर से राजनीतिक-विश्लेषकों और राजनीति के खिलाड़ियो के लिए बहस की मुख्य विषय-वस्तु के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। पहली घटना हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पटेलों का लामबंद होकर के आरक्षण की मांग करना और दूसरा मोहन भागवत का वह बयान जिसमे उन्होने आरक्षण की समीक्षा की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था शुरू से ही विवाद के केंद्र में रही है। विरोध आरक्षण का नहीं है, अपितु आरक्षण की पात्रता को निर्धारित करने वाले मानकों को लेकर के है। आरक्षण जोकि सामाजिक-आर्थिक विषमता वाले समाज में समानता , समरसता और सामाजिक-न्याय की स्थापना हेतु आवशक साधन के रूप में अपनाया गया था , आज सामाजिक विद्वेष की वजह बन चुका है। कारण, जाति-आधारित आरक्षण ने जातियों को आमने-सामने ला खड़ा किया है। इसमें एक तरफ वो जातियाँ हैं जो आरक्षण से लाभान्वित हैं और दूसरी तरफ वो जातियाँ हैं जो इस लाभ से वंचित हैं या फिर आरक्षण के चलते नुकसान उठा रहीं हैं। इससे वों जातियाँ भी गोलबंद होनी शुरू हो गईं हैं जो अपनी संख्या के बल पर आरक्षण को अपने हक में मोड़ने के लिए व्यग्र और उग्र हैं। यह जाति-आधारित आरक्षण की ही बलिहारी है कि आजकल नई-नई जातियाँ अपने नेतृत्वकर्ता के पीछे लामबंद होकर के आरक्षण की मांग करती रहती हैं और मजे की बात यह है कि आरक्षण की मांग उन जातियों के द्वारा की जाती है जो सामाजिक-आर्थिक रूप से न केवल सम्पन्न हैं बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में भी इनकी अच्छी-ख़ासी भागीदारी है। इस प्रकार इसने प्रकारांतर से जातियों के राजनीतिकरण को बढ़ावा दिया है ।
वर्तमान में आरक्षण सुविधावादी राजनीति का जरिया बन गया है। यही कारण है कि आरक्षण की समीक्षा की मांग उठते ही कुछ नेता इसे सीधे पिछड़ों के खिलाफ अगड़ी जातियों के षड्यंत्र के रूप में प्रचारित कर पिछड़ी जातियों के एकमात्र संरक्षक बनने का दावा करने लगते हैं। उन्हें पता है कि आरक्षण के सहारे जातियों को बहुत आसानी से गोलबंद करके वोटबैंक में तब्दील किया जा सकता है। यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि आरक्षण से किन जातियों का कितना भला हो पाया है प्रश्न यह है कि आरक्षण के सहारे कौन पार्टी कितना और कब तक राजनीतिक-लाभ हासिल कर सकती है।
जातियों के राजनीतिकरण का ही यह परिणाम है कि मण्डल आयोग के समय जहां देश में 2052 पिछड़ी जातियाँ थीं वहीं 1994 में इनकी संख्या बढ़कर 3700 हो गई । सत्ता के केंद्र तक पहुँचने के लिए आरक्षण से बेहतर और क्या राजनीतिक हथियार हो सकता है। आज कोई भी पार्टी वोट-बैंक खिसकने के डर से आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा तक नहीं करना चाहती । यथास्थितिवाद की समर्थक ये पार्टियां व्यवस्था के उन दोषों को भी दूर नहीं करना चाहतीं जिनके कारण आरक्षण का लाभ उठा रहीं जातियों के ही सभी लोगों को आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिल पा रहा। इसके लिए भी पहल सुप्रीम कोर्ट को करनी पड़ी । मसलन क्रीमीलेयर की अवधारणा को लागू करना और प्रमोशन में आरक्षण को खत्म करना । प्रमोशन में आरक्षण को लेकर अभी भी कुछ पार्टियां इसके समर्थन में खड़ी हुई हैं । आखिर आरक्षण के अंदर आरक्षण का क्या मतलब है। क्या यह घोर अवसरवादिता नहीं है ? अवसरवादी राजनीति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि जो पार्टियां आरक्षण के मौजूदा स्वरूप को बनाए रखने की जबर्दस्त वकालत करती हैं वे ही महिला आरक्षण की विरोधी हैं । यह दोहरा चरित्र है इन पार्टियों का। अगर ये पार्टियां वास्तव में पिछड़ों के उत्थान के प्रति चिंतित और समर्पित हैं तो क्यों नहीं टिकट बँटवारे में और मंत्रिमंडल में अधिकाधिक संख्या में इन जातियों के लोगों को जगह देतीं हैं ।
दरअसल यह सुविधावादी राजनीति ही है कि हम सिद्धांतों की व्याख्या अपने राजनीतिक लाभ के हिसाब से करते हैं। अब सिद्धांतों की राजनीति नहीं होती वरन राजनीतिक लाभ के लिए सिद्धांतों को गढा जाता है। मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के अंदर कुछ अंतर्विरोध हैं जिनको दरकिनार कर हम आगे नहीं बढ़ सकते। क्या मौजूदा व्यवस्था के तहत आरक्षण के लाभ को कुछ जतियों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए या फिर इसमे समाज के सभी दलितों, वंचितों के सरोंकारों को स्थान देना चाहिए। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब उन लोगों को देना चाहिए जो इस व्यवस्था को निर्दोष और अपरिवर्तनीय मानते हैं। क्या उन वंचितों और पिछड़े समूहों का कोई अधिकार नहीं बनता जो इन आरक्षण-प्राप्त जातियों की सीमाओं में नहीं आते। वंचित-समूहों का जाति के आधार पर विभेदीकरण करना और इस आधार पर कुछ जातियों को सरकारी सहायता उपलब्ध कराना, कहाँ तक न्यायोचित है। क्या इससे जाति-मुक्त समाज के निर्माण का स्वप्न साकार हो सकेगा ?क्या इससे जातीय जकड़न और नहीं मजबूत होगी?
आरक्षण जो कि प्रारम्भ में सिर्फ 10 वर्षों के लिए था और उसके बाद स्थिति की समीक्षा की अपेक्षा की गई थी पर समीक्षा का जोखिम आज तक नहीं उठाया गया बगैर यह सोंचे कि इसका लाभ वास्तविक लोगों तक पहुंचा भी है या नहीं । अगर आज भी सरकारी सेवाओं में आरक्षित-वर्ग की सीटें खाली रह जाती हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि आरक्षण का लाभ निचले तबके तक नहीं पहुँच पा रहा है।समाज में हाशिये पर पड़े वंचित-समूहों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए और सामाजिक-न्याय प्रदान करने के लिए आरक्षण एक प्रभावी प्रयास के रूप में स्वागत-योग्य कदम है पर क्या यह प्रयास समय की कसौटी पर खरा उतरा है ? जिस विषय की समीक्षा किए जाने का समय प्रारम्भ के 10 वर्ष बाद तय था उस विषय की समीक्षा का प्रश्न क्या 65 वर्षों बाद भी उठाना गैर-मुनासिब है ? आज एक अपरिवर्तनीय व्यवस्था का रूप ले चुकी आरक्षण व्यवस्था पर की गई तटस्थ टिप्पणी दलित-विरोध की द्योतिका हो जाती है ।
आज आवश्यकता है कि आरक्षण व्यवस्था को सकारात्मक दृष्टि से देखा जाए और उसमे सकारात्मक बदलाव लाएँ जाएँ ताकि यह वंचितों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने में महती भूमिका अदा कर सके। समाज में ऐसे तमाम सामर्थ्यवान लोग होंगे जो वंचितों के प्रति सहानुभूति रखते हुए स्वतः आरक्षण छोड़ देंगे । इसके लिए आवेदन-पत्रों में एक अलग से कालम होना चाहिए जो आरक्षण-मुक्ति की घोषणा से संबन्धित हो । ऐसे लोगों को सम्मानित किया जाना चाहिए। इसके अलावा क्रीमीलेयर की सीमा का भी कठोरता से पालन किया जाना चाहिए । साथ ही आरक्षण का आधार यदि आर्थिक कर दिया जाय तो इससे आरक्षण को व्यापक परिप्रेक्ष्य तो मिलेगा ही साथ ही इससे जातीय वैमनस्य को खत्म करने में भी सहायता मिलेगी, हालांकि इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि वोट की राजनीति इसकी इजाजत नहीं देगी।

– संजीव शुक्ल’अतुल’।
http://sanjeevshuklaatul.blogspot.in/2015/09/blog-post_24.html

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply