संजीव शुक्ल ‘अतुल’
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जहाँ संवेदनाएँ मर चुकी हों ,फिर शिकायत क्या करें।
वजहाँ संवेदनाएँ मर चुकी हों ,फिर शिकायत क्या करें।
वक्त आने पर बदल जायेंगे वो कुछ इस तरह ,
ऐसे लोगों की शराफत का भरोसा क्या करें।
है जहाँ इंसानियत घाटे का सौदा हर समय,
ऐसी महफिल में, कदम रख़ करके भी हम क्या करें।
तुम मुझे ना जान पाए ,उम्र भर रह करके भी
है कमी कोई कहीं पर और अब हम क्या कहें।
जिसको बनाने में लगाये जिन्दगी के अहम हिस्से ,
गर वो ही नजरें चुराये फिर शिकायत क्या करें . चाहने से क्या फर्क पड़ता है, चाहो खूब चाहो ।
इसमें मुनाफा गर न हो, फिर चाहकर वो क्या करें ।
आस्थाएँ बिक गईं, सत्ता की गलियों में कहीं ।
जो न सत्ता दे सके, उस वाद का वो क्या करें । ।
– संजीव शुक्ल “अतुल “
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